अध्याय 18 श्लोक 18
अध्याय 18 : उपसंहार - संन्यास की सिद्धि
श्लोक 18.18
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना |
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः || १८ ||
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ज्ञानम् - ज्ञान; ज्ञेयम् - ज्ञान का लक्ष्य (जानने योग्य); परिज्ञाता - जानने वाला; त्रि-विधा - तीन प्रकार के; कर्म - कर्म की; चोदना - प्रेरणा (अनुप्रेरणा); करणम् - इन्द्रियाँ; कर्म - कर्म; कर्ता - कर्ता; इति - इस प्रकार; त्रि-विधः - तीन प्रकार के; कर्म - कर्म के; सङ्ग्रहः - संग्रह, संचय |
भावार्थ
भावार्थ
ज्ञान, ज्ञेय तथा ज्ञाता - ये तीनों कर्म को प्रेरणा देने वाले कारण हैं | इन्द्रियाँ (करण), कर्म तथा कर्ता - ये तीन कर्म के संघटक हैं |
तात्पर्य
दैनिक कार्य के लिए तीन प्रकार की प्रेरणाएँ हैं - ज्ञान, ज्ञेय तथा ज्ञाता | कर्म का उपकरण (करण), स्वयं कर्म तथा कर्ता - ये तीनों कर्म के संघटक कहलाते हैं | किसी भी मनुष्य द्वारा किये गये किसी कर्म में ये ही तत्त्व रहते हैं | कर्म करने के पूर्ण कुछ न कुछ प्रेरणा होती है | किसी भी कर्म से पहले प्राप्त होने वाला फल कर्म के सूक्ष्म रूप में वास्तविक बनता है | इसके बाद वह क्रिया का रूप धारण करता है | पहले मनुष्य को सोचने, अनुभव करने तथा इच्छा करने जैसी मनोवैज्ञानिक विधियों का सामना करना होता है, जिसे प्रेरणा कहते हैं और यह प्रेरणा चाहे शास्त्रों से प्राप्त हो, या गुरु के उपदेश से, एकसी होती है | जब प्रेरणा होती है और जब कर्ता होता है, तो इन्द्रियों की सहायता से, जिनमें मन सम्मिलित है और जो समस्त इन्द्रियों का केन्द्र है, वास्तविक कर्म सम्पन्न होता है | किसी कर्म के समस्त संघटकों को कर्म-संग्रह कहा जाता है |
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