अध्याय 16 श्लोक 23
जो शास्त्रों के आदेशों की अवहेलना करता है और मनमाने ढंग से कार्य करता है, उसे न तो सिद्धि, न सुख, न ही परम गति की प्राप्ति हो पाती है ।
अध्याय 16 : दैवी और आसुरी स्वभाव
श्लोक 16.23
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः |
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः |
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् || २३ ||
यः - जो; शस्त्र-विधिम् - शास्त्रों की विधियों को; उत्सृज्य - त्याग कर; वर्तते - करता रहता है; काम-कारतः - काम के वशीभूत होकर मनमाने ढंग से; न - कभी नहीं; सः - वह; सिद्धिम् - सिद्धि को; अवाप्नोति - प्राप्त करता है; न - कभी नहीं; सुखम् - सुख को; न - कभी नहीं; पराम् - परम; गतिम् - सिद्ध अवस्था को |
भावार्थ
जो शास्त्रों के आदेशों की अवहेलना करता है और मनमाने ढंग से कार्य करता है, उसे न तो सिद्धि, न सुख, न ही परम गति की प्राप्ति हो पाती है ।
भावार्थ
जो शास्त्रों के आदेशों की अवहेलना करता है और मनमाने ढंग से कार्य करता है, उसे न तो सिद्धि, न सुख, न ही परम गति की प्राप्ति हो पाती है ।
तात्पर्य
काम-कारतः शब्द अत्यन्त सार्थक है । जो व्यक्ति जान बूझ का नियमों का अतिक्रमण करता है, वह काम के वश में होकर कर्म करता है । वह जानता है कि ऐसा करना मना है, लेकिन फिर भी वह ऐसा करता है । इसी को स्वेच्छा चार कहते हैं । यह जानते हुए भी कि अमुक काम करना चाहिए, फिर भी वह उसे नहीं करता है, इसीलिए उसे स्वेच्छा कारी कहा जाता है । ऐसे व्यक्ति अवश्य ही भगवान् द्वारा दंडित होते हैं । ऐसे व्यक्तियों को मनुष्य जीवन की सिद्धि प्राप्त नहीं हो पाती । मनुष्य जीवन तो अपने आपको शुद्ध बनाने के लिए है, किन्तु जो व्यक्ति विधि-विधानों का पालन नहीं करता, वह अपने को न तो शुद्ध बना सकता है, न ही वास्तविक सुख प्राप्त कर सकता है |
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