अध्याय 6 श्लोक 1
श्रीभगवान् ने
कहा – जो पुरुष अपने कर्मफल के प्रति अनासक्त है और जो अपने कर्तव्य का
पालन करता है, वही संन्यासी और असली योगी है | वह नहीं, जो न तो अग्नि
जलाता है और न कर्म करता है |Translate
Sunday, 13 October 2013
अध्याय 5 श्लोक 5 - 29 , BG 5 - 29 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 29
मुझे समस्त
यज्ञों तथा तपस्याओं का परं भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्र्वर
एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष
भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता है |अध्याय 5 श्लोक 5 - 27 , 28 , BG 5 - 27 , 28 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 27-28
समस्त
इन्द्रियविषयों को बाहर करके, दृष्टि को भौंहों के मध्य में केन्द्रित
करके, प्राण तथा अपान वायु को नथुनों के भीतर रोककर और इस तरह मन,
इन्द्रियों तथा बुद्धि को वश में करके जो मोक्ष को लक्ष्य बनाता है वह योगी
इच्छा, भय तथा क्रोध से रहित हो जाता है | जो निरन्तर इस अवस्था में रहता
है, वह अवश्य ही मुक्त है |अध्याय 5 श्लोक 5 - 26 , BG 5 - 26 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 26
जो
क्रोध तथा समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित हैं, जो स्वरुपसिद्ध, आत्मसंयमी
हैं और संसिद्धि के लिए निरन्तर प्रयास करते हैं उनकी मुक्ति निकट भविष्य
में सुनिश्चित है | अध्याय 5 श्लोक 5 - 25 , BG 5 - 25 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 25
जो
लोग संशय से उत्पन्न होने वाले द्वैत से परे हैं, जिनके मन
आत्म-साक्षात्कार में रत हैं, जो समस्त जीवों के कल्याणकार्य करने में सदैव
व्यस्त रहते हैं और जो समस्त पापों से रहित हैं, वे ब्रह्मनिर्वाण
(मुक्ति) को प्राप्त होते हैं |अध्याय 5 श्लोक 5 - 24 , BG 5 - 24 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 24
जो अन्तःकरण
में सुख का अनुभव करता है, जो कर्मठ है और अन्तःकरण में ही रमण करता है तथा
जिसका लक्ष्य अन्तर्मुखी होता है वह सचमुच पूर्ण योगी है | वह परब्रह्म
में मुक्त पाता है और अन्ततोगत्वा ब्रह्म को प्राप्त होता है |अध्याय 5 श्लोक 5 - 23 , BG 5 - 23 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 23
यदि इस शरीर को
त्यागने के पूर्व कोई मनुष्य इन्द्रियों के वेगों को सहन करने तथा इच्छा
एवं क्रोध के वेग को रोकने में समर्थ होता है, तो वह इस संसार में सुखी रह
सकता है |अध्याय 5 श्लोक 5 - 22 , BG 5 - 22 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 22
बुद्धिमान्
मनुष्य दुख के कारणों में भाग नहीं लेता जो कि भौतिक इन्द्रियों के संसर्ग
से उत्पन्न होते हैं | हे कुन्तीपुत्र! ऐसे भोगों का आदि तथा अन्त होता
है, अतः चतुर व्यक्ति उनमें आनन्द नहीं लेता |
अध्याय 5 श्लोक 5 - 21 , BG 5 - 21 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 21
ऐसा मुक्त
पुरुष भौतिक इन्द्रियसुख की ओर आकृष्ट नहीं होता, अपितु सदैव समाधि में
रहकर अपने अन्तर में आनन्द का अनुभव करता है | इस प्रकार स्वरुपसिद्ध
व्यक्ति परब्रह्म में एकाग्रचित्त होने के कारण असीम सुख भोगता है |
अध्याय 5 श्लोक 5 - 20 , BG 5 - 20 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 20
जो न तो प्रिय
वस्तु को पाकर हर्षित होता है और न अप्रिय को पाकर विचलित होता है, जो
स्थिरबुद्धि है, जो मोहरहित और भगवद्विद्या को जानने वाला है वह पहले से ही
ब्रह्म में स्थित रहता है |
अध्याय 5 श्लोक 5 - 19 , BG 5 - 19 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 19
जिनके मन एकत्व
तथा समता में स्थित हैं उन्होंने जन्म तथा मृत्यु के बन्धनों को पहले ही
जीत लिया है | वे ब्रह्म के समान निर्दोष हैं और सदा ब्रह्म में ही स्थित
रहते हैं |
अध्याय 5 श्लोक 5 - 18 , BG 5 - 18 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 18
विनम्र साधुपुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान् तथा विनीत ब्राह्मण गाय, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल को समान दृष्टि (समभाव) से देखते हैं |
अध्याय 5 श्लोक 5 - 17 , BG 5 - 17 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 17
जब मन, बुद्धि, श्रद्धा तथा शरण सब कुछ भगवान् में स्थिर हो जाते हैं, तभी वह पूर्णज्ञान द्वारा समस्त कल्मष से शुद्ध होता है और मुक्ति के पथ पर अग्रसर होता है |
अध्याय 5 श्लोक 5 - 16 , BG 5 - 16 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 16
किन्तु जब कोई उस ज्ञान से प्रबुद्ध होता है, जिससे अविद्या का विनाश होता है, तो उसके ज्ञान से सब कुछ उसी तरह प्रकट हो जाता है, जैसे दिन में सूर्य से सारी वस्तुएँ प्रकाशित हो जाती हैं |
अध्याय 5 श्लोक 5 - 15 , BG 5 - 15 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 15
परमेश्र्वर न तो किसी के पापों को ग्रहण करता है , न पुण्यों को | किन्तु सारे देहधारी जीव उस अज्ञान के कारण मोहग्रस्त रहते हैं, जो उनके वास्तविक ज्ञान को आच्छादित किये रहता है |
अध्याय 5 श्लोक 5 - 14 , BG 5 - 14 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 14
शरीर
रूपी नगर का स्वामी देहधारी जीवात्मा न तो कर्म का सृजन करता है, न लोगों
को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है, न ही कर्मफल की रचना करता है | यह सब
तो प्रकृति के गुणों द्वारा ही किया जाता है |
अध्याय 5 श्लोक 5 - 13 , BG 5 - 13 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 13
जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन से समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है तब वह नौ द्वारों वाले नगर (भौतिक शरीर) में बिना कुछ किये कराये सुखपूर्वक रहता है |
Monday, 2 September 2013
अध्याय 5 श्लोक 5 - 12 , BG 5 - 12 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 12
निश्चल भक्त शुद्ध शान्ति प्राप्त करता है क्योंकि वह समस्त कर्मफल मुझे अर्पित कर देता है, किन्तु जो व्यक्ति भगवान् से युक्त नहीं है और जो अपने श्रम का फलकामी है, वह बँध जाता है |
Monday, 29 July 2013
अध्याय 5 श्लोक 5 - 11 , BG 5 - 11 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 11
योगीजन आसक्तिरहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं |
अध्याय 5 श्लोक 5 - 10 , BG 5 - 10 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 10
जो व्यक्ति कर्मफलों को परमेश्र्वर को समर्पित करके आसक्तिरहित होकर अपना कर्म करता है, वह पापकर्मों से उसी प्रकार अप्रभावित रहता है, जिस प्रकार कमलपत्र जल से अस्पृश्य रहता है |
Sunday, 28 July 2013
अध्याय 5 श्लोक 5 - 8 , 9 , BG 5 - 8 , 9 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 8-9
दिव्य भावनामृत युक्त पुरुष देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूँघते, खाते, चलते-फिरते, सोते तथा श्र्वास लेते हुए भी अपने अन्तर में सदैव यही जानता रहता है कि वास्तव में वह कुछ भी नहीं करता | बोलते, त्यागते, ग्रहण करते या आँखे खोलते-बन्द करते हुए भी वह यह जानता रहता है कि भौतिक इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त है और वह इन सबसे पृथक् है |
अध्याय 5 श्लोक 5 - 7 , BG 5 - 7 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 7
जो भक्तिभाव में कर्म करता है, जो विशुद्ध आत्मा है और अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में रखता है, वह सबों को प्रिय होता है और सभी लोग उसे प्रिय होते हैं | ऐसा व्यक्ति कर्म करता हुआ भी कभी नहीं बँधता |
अध्याय 5 श्लोक 5 - 6 , BG 5 - 6 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 6
भक्ति में लगे बिना केवल समस्त कर्मों का परित्याग करने से कोई सुखी नहीं बन सकता | परन्तु भक्ति में लगा हुआ विचारवान व्यक्ति शीघ्र ही परमेश्र्वर को प्राप्त कर लेता है |
अध्याय 5 श्लोक 5 - 5 , BG 5 - 5 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 5
जो यह जानता है कि विश्लेषात्मक अध्ययन (सांख्य) द्वारा प्राप्य स्थान भक्ति द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है, और इस तरह जो सांख्ययोग तथा भक्तियोग को एकसमान देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप देखता है |
अध्याय 5 श्लोक 5 - 4 , BG 5 - 4 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 4
अज्ञानी ही भक्ति (कर्मयोग) को भौतिक जगत् के विश्लेषात्मक अध्ययन (सांख्य) से भिन्न कहते हैं | जो वस्तुतः ज्ञानी हैं वे कहते हैं कि जो इनमें से किसी एक मार्ग का भलीभाँति अनुसरण करता है, वह दोनों के फल प्राप्त कर लेता है |
अध्याय 5 श्लोक 5 - 3 , BG 5 - 3 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 3
जो पुरुष न तो कर्मफलों से घृणा करता है और न कर्मफल की इच्छा करता है, वह नित्य संन्यासी जाना जाता है | हे महाबाहु अर्जुन! ऐसा मनुष्य समस्त द्वन्द्वों से रहित होकर भवबन्धन को पार कर पूर्णतया मुक्त हो जाता है |
अध्याय 5 श्लोक 5 - 2 , BG 5 - 2 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 2
श्रीभगवान् ने उत्तर दिया – मुक्ति में लिए तो कर्म का परित्याग तथा भक्तिमय-कर्म (कर्मयोग) दोनों ही उत्तम हैं | किन्तु इन दोनों में से कर्म के परित्याग से भक्तियुक्त कर्म श्रेष्ठ है |
अध्याय 5 श्लोक 5 - 1 , BG 5 - 1 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 5 श्लोक 1
अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण! पहले आप मुझसे कर्म त्यागने के लिए कहते हैं और फिर भक्तिपूर्वक कर्म करने का आदेश देते हैं | क्या आप अब कृपा करके निश्चित रूप से मुझे बताएँगे कि इन दोनों में से कौन अधिक लाभप्रद है?
Saturday, 27 July 2013
अध्याय 4 श्लोक 4 - 42 , BG 4 - 42 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 4 श्लोक 42
अतएव तुम्हारे हृदय में अज्ञान के कारण जो संशय उठे हैं उन्हें ज्ञानरूपी शस्त्र से काट डालो | हे भारत! तुम योग से समन्वित होकर खड़े होओ और युद्ध करो |
अध्याय 4 श्लोक 4 - 41 , BG 4 - 41 Bhagavad Gita As It Is Hindi
अध्याय 4 श्लोक 41
जो व्यक्ति अपने कर्मफलों का परित्याग करते हुए भक्ति करता है और जिसके संशय दिव्यज्ञान द्वारा विनष्ट हो चुके होते हैं वही वास्तव में आत्मपरायण है | हे धनञ्जय! वह कर्मों के बन्धन से नहीं बँधता |
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