अध्याय 18 श्लोक 40
इस लोक में, स्वर्ग लोकों में या देवताओं के मध्य में कोई भी ऐसाव्यक्ति विद्यमान नहीं है, जो प्रकृति के तीन गुणों से मुक्त हो |
अध्याय 18 : उपसंहार - संन्यास की सिद्धि
श्लोक 18.40
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः |
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणै: || ४० ||
न– नहीं; तत्– वह; अस्ति– है; पृथिव्याम्– पृथ्वी पर; वा– अथवा;दिवि– उच्चतर लोकों में; देवेषु– देवताओं में; वा– अथवा; पुनः– फिर; सत्त्वम्– अस्तित्व; प्रकृति-जैः– प्रकृति से उत्पन्न; मुक्तम्– मुक्त; यत्– जो; एभिः–इनके प्रभाव से; स्वात्– हो; त्रिभिः– तीन; गुणैः– गुणों से |
भावार्थ
भावार्थ
इस लोक में, स्वर्ग लोकों में या देवताओं के मध्य में कोई भी ऐसाव्यक्ति विद्यमान नहीं है, जो प्रकृति के तीन गुणों से मुक्त हो |
तात्पर्य
भगवान् इस श्लोक में समग्र ब्रह्माण्ड में प्रकृति के तीनगुणों के प्रभाव का संक्षिप्त विवरण दे रहे हैं |
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