अध्याय 17 श्लोक 21
अध्याय 17 : श्रद्धा के विभाग
श्लोक 17.21
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः |
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः |
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् || २१ ||
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यत् - जो; तु - लेकिन; प्रति-उपकार-अर्थम् - बदले में पाने के उद्देशय से; फलम् - फल को; उद्दिश्य - इच्छा करके; वा - अथवा; पुनः - फिर; दीयते - दिया जाता है; च - भी; परिक्लिष्टम् - पश्चाताप के साथ; तत् - उस; दानम् - दान को; राजसम् - रजोगुणी; स्मृतम् - माना जाता है ।
भावार्थ
भावार्थ
किन्तु जो दान प्रत्युपकार की भावना से या कर्म फल की इच्छा से या अनिच्छा पूर्वक किया जाता है, वह रजो गुणी (राजस) कहलाता है ।
तात्पर्य
ऐसे अनेक दातव्य न्यास हैं, जो उन संस्थाओं को दान देते हैं, जहाँ इन्द्रियभोग का बाजार गर्म रहता है | वैदिक शास्त्र ऐसे दान की संस्तुति नहीं करते | केवल सात्त्विक दान की संस्तुति की गई है |
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