अध्याय 17 श्लोक 19
अध्याय 17 : श्रद्धा के विभाग
श्लोक 17.19
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मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः |
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् || १९ ||
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मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः |
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् || १९ ||
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मूढ - मुर्ख; ग्राहेण - प्रयत्न से; आत्मनः - अपने ही; यत् - जो; पीडया - उत्पीड़न द्वारा; क्रियते - की जाती है; तपः - तपस्या; परस्य - अन्यों की; उत्सादन-अर्थम् - विनाश करने के लिए; वा - अथवा; तत् - वह; तामसम् - तमोगुणी; उदाहृतम् - कही जाती है ।
भावार्थ
मूर्खता वश आत्म-उत्पीड़न के लिए या अन्यों को विनष्ट करने या हानि पहुँचाने के लिए जो तपस्या की जाती है, वह तामसी कहलाती है ।
भावार्थ
मूर्खता वश आत्म-उत्पीड़न के लिए या अन्यों को विनष्ट करने या हानि पहुँचाने के लिए जो तपस्या की जाती है, वह तामसी कहलाती है ।
तात्पर्य
मूर्खतापूर्ण तपस्या के ऐसे अनेक दृष्टान्त हैं, जैसे कि हिरण्यकशिपु जैसे असुरों ने अमर बनने तथा देवताओं का वध करने के लिए कठिन तप किए । उसने ब्रह्मा से ऐसी ही वस्तुएँ माँगी थीं, लेकिन अन्त में वह भगवान् द्वारा मारा गया । किसी असम्भव वस्तु के लिए तपस्या करना निश्चय ही तामसी तपस्या है ।
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