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Sunday 5 April 2020

अध्याय 18 श्लोक 18 - 55 , BG 18 - 55 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 18 श्लोक 55


केवल भक्ति से मुझ भगवान् को यथारूप में जाना जा सकता है | जब मनुष्य ऐसी भक्ति से मेरे पूर्ण भावनामृत में होता है, तो वह वैकुण्ठ जगत् में प्रवेश कर सकता है |


अध्याय 18 : उपसंहार - संन्यास की सिद्धि

श्लोक 18.55




भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्र्चास्मि तत्त्वतः |

ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् || ५५ ||




भक्त्या– शुद्ध भक्ति से; माम्– मुझको; अभिजानाति– जान सकता है; यावान्– जितना; यः च अस्मि– जैसा मैं हूँ; तत्त्वतः– सत्यतः; ततः– तत्पश्चात्; माम्– मुझको; तत्त्वतः– सत्यतः; ज्ञात्वा– जानकर; विशते– प्रवेश करता है; तत्-अनन्तरम्– तत्पश्चात् |



भावार्थ





केवल भक्ति से मुझ भगवान् को यथारूप में जाना जा सकता है | जब मनुष्य ऐसी भक्ति से मेरे पूर्ण भावनामृत में होता है, तो वह वैकुण्ठ जगत् में प्रवेश कर सकता है |





तात्पर्य



भगवान् श्रीकृष्ण तथा उनके स्वांशों को न तो मनोधर्म द्वारा जाना जा सकता है, न ही अभक्तगण उन्हें समझ पाते हैं | यदि कोई व्यक्ति भगवान् को समझना चाहता है, तो उसे शुद्ध भक्त के पथप्रदर्शन में शुद्ध भक्ति ग्रहण करनी होती है, अन्यथा भगवान् सम्बन्धी सत्य (तत्त्व) उससे सदा छिपा रहेगा | जैसा कि भगवद्गीता (७.२५) कहा जा चुका है – नाहं प्रकाशः सर्वस्य– मैं सबों के समक्ष प्रकाशित नहीं होता | केवल पाण्डित्य या मनोधर्म द्वारा ईश्र्वर को नहीं समझा जा सकता | कृष्ण को केवल वही समझ पाता है, जो कृष्णभावनामृत तथा भक्ति में तत्पर रहता है | इसमें विश्वविद्यालय की उपाधियाँ सहायक नहीं होती हैं |


जो व्यक्ति कृष्ण विज्ञान (तत्त्व) से पूर्णतया अवगत है, वही वैकुण्ठजगत् या कृष्ण के धाम में प्रवेश कर सकता है | ब्रह्मभूत होने का अर्थ यह नहीं है कि वह अपना स्वरूप खो बैठता है | भक्ति तो रहती ही है और जब तक भक्ति का अस्तित्व रहता है, तब तक ईश्र्वर, भक्त तथा भक्ति की विधि रहती है | ऐसे ज्ञान का नाश मुक्ति के बाद भी नहीं होता | मुक्ति का अर्थ देहात्मबुद्धि से मुक्ति प्राप्त करना है | आध्यात्मिक जीवन में वैसा ही अन्तर, वही व्यक्तित्व (स्वरूप) बना रहता है, लेकिन शुद्ध कृष्णभावनामृत में ही विशते शब्द का अर्थ है “मुझमें प्रवेश करता है|” भ्रमवश यह नहीं सोचना चाहिए कि यह शब्द अद्वैतवाद का पोषक है और मनुष्य निर्गुण ब्रह्म से एकाकार हो जाता है | ऐसा नहीं है |विशते का तात्पर्य है कि मनुष्य अपने व्यक्तित्व सहित भगवान् के धाम में, भगवान् की संगति करने तथा उनकी सेवा करने के लिए प्रवेश कर सकता है | उदाहरणार्थ, एक हरा पक्षी (शुक) हरे वृक्ष में इसलिए प्रवेश नहीं करता कि वह वृक्ष से तदाकार (लीन) हो जाय, अपितु वह वृक्ष के फलों का भोग करने के लिए प्रवेश करता है | निर्विशेषवादी सामान्यतया समुद्र में गिरने वाली तथा समुद्र से मिलने वाली नदी का दृष्टान्त प्रस्तुत करते हैं | यह निर्विशेषवादियों के लिए आनन्द का विषय हो सकता है, लेकिन साकारवादी अपने व्यक्तित्व को उसी प्रकार बनाये रखना चाहता है, जिस प्रकार समुद्र में एक जलचर प्राणी | यदि हम समुद्र की गहराई में प्रवेश करें तो हमें अनेकानेक जीव मिलते हैं | केवल समुद्र की ऊपरी जानकारी पर्याप्त नहीं है, समुद्र की गहराई में रहने वाले जलचर प्राणियों की भी जानकारी रखना आवश्यक है |


भक्त अपनी शुद्ध भक्ति के कारण परमेश्र्वर के दिव्य गुणों तथा ऐश्र्वर्यों को यथार्थ रूप में जान सकता है | जैसा कि ग्याहरवें अध्याय में कहा जा चुका है, केवल भक्ति द्वारा इसे समझा जा सकता है | इसी की पुष्टि यहाँ भी हुई है | मनुष्य भक्ति द्वारा भगवान् को समझ सकता है और उनके धाम में प्रवेश कर सकता है |
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भौतिक बुद्धि से मुक्ति की अवस्था – ब्रह्मभूत अवस्था – को प्राप्त कर लेने के बाद भगवान् के विषय में श्रवण करने से भक्ति का शुभारम्भ होता है | जब कोई परमेश्र्वर के विषय में श्रवण करता है, तो स्वतः ब्रह्मभूत अवस्था का उदय होता है और भौतिक कल्मष – यथा लोभ तथा काम – का विलोप हो जाता है | ज्यों-ज्यों भक्त के हृदय से काम तथा इच्छाएँ विलुप्त होती जाती हैं, त्यों-त्यों वह भगवद्भक्ति के प्रति अधिक आसक्त होता जाता है और इस तरह वह भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है | जीवन की उस स्थिति में वह भगवान् को समझ सकता है | श्रीमद्भागवत में भी इसका कथन हुआ है | मुक्ति के बाद भक्तियोग चलता रहता है | इसकी पुष्टि वेदान्तसूत्र से (4.१.१२) होती है – आप्रायणात् तत्रापि हि दृष्टम्| इसका अर्थ है कि मुक्ति के बाद भक्तियोग चलता रहता है | श्रीमद्भागवत में वास्तविक भक्तिमयी मुक्ति की जो परिभाषा दी गई है उसके अनुसार यह जीव का अपने स्वरूप या अपनी निजी स्वाभाविक स्थिति में पुनःप्रतिष्ठापित हो जाना है | स्वाभाविक स्थिति की व्याख्या पहले ही की जा चुकी है – प्रत्येक जीव परमेश्र्वर का अंश है, अतएव उसकी स्वाभाविक स्थिति सेवा करने की है | मुक्ति के बाद यह सेवा कभी रूकती नहीं | वास्तविक मुक्ति तो देहात्मबुद्धि की भ्रान्त धारणा से मुक्त होना है |







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