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Sunday 5 April 2020

अध्याय 18 श्लोक 18 - 46 , BG 18 - 46 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 18 श्लोक 46


जो सभी प्राणियों का उदगम् है और सर्वव्यापी है, उस भगवान् की उपासना करके मनुष्य अपना कर्म करते हुए पूर्णता प्राप्त कर सकता है ।


अध्याय 18 : उपसंहार - संन्यास की सिद्धि

श्लोक 18.46




यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् |

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः || ४६ ||





यतः - जिससे; प्रवृत्तिः - उद्भव; भूतानाम् - समस्त जीवों का; येन - जिससे; सर्वम् - समस्त; इदम् - यह; ततम् - व्याप्त है; स्व-कर्मणा - अपने कर्म से; तम् - उसको; अभ्यर्च्य - पूजा करके; सिद्धिम् - सिद्धि को; विन्दति - प्राप्त करता है; मानवः - मनुष्य ।



भावार्थ





जो सभी प्राणियों का उदगम् है और सर्वव्यापी है, उस भगवान् की उपासना करके मनुष्य अपना कर्म करते हुए पूर्णता प्राप्त कर सकता है ।





तात्पर्य




जैसा कि पन्द्रहवें अध्याय में बताया जा चुका है, सारे जीव परमेश्र्वर के भिन्नांश हैं । इस प्रकार परमेश्र्वर ही सभी जीवों के आदि हैं । वेदान्त सूत्र में इसकी पुष्टि हुई है-जन्मा द्यस्य यतः । अतएव परमेश्र्वर प्रत्येक जीव के जीवन के उद्गम हैं । जैसा कि भगवद्गीता के सातवें अध्याय में कहा गया है, परमेश्र्वर अपनी परा तथा अपरा, इन दो शक्तियों द्वारा सर्वव्यापी हैं । अतएव मनुष्य को चाहिए कि उनकी शक्तियों सहित भगवान् की पूजा करे । सामान्यतया वैष्णव जन परमेश्र्वर की पूजा उनकी अन्तरंगा शक्ति समेत करते हैं । उनकी बहिरंगा शक्ति उनकी अंतरंगा शक्ति का विकृत प्रतिबिम्ब है । बहिरंगा शक्ति पृष्ठ भूमि है, लेकिन परमेश्र्वर परमात्मा रूप में पूर्णांश का विस्तार करके सर्वत्र स्थित हैं । वे सर्वत्र समस्त देवताओं, मनुष्यों और पशुओं के परमात्मा हैं । अतएव मनुष्य को यह जानना चाहिए कि परमेश्र्वर का भिन्नांश अंश होने के कारण उसका कर्तव्य है कि वह भगवान् की सेवा करे । प्रत्येक व्यक्ति को कृष्णभावनामृत में भगवान् की भक्ति करनी चाहिए । इस श्लोक में इसी की संस्तुति की गई है ।


प्रत्येक व्यक्ति को सोचना चाहिए कि इन्द्रियों के स्वामी हृषिकेश द्वारा वह विशेष कर्म में प्रवृत्त किया गया है । अतएव जो जिस कर्म में लगा है, उसी के फल के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण को पूजना चाहिए । यदि वह इस प्रकार से कृष्णभावनामय हो कर सोचता है, तो भगवत्कृपा से वह पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेता है । यही जीवन की सिद्धि है । भगवान् ने भगवद्गीता में (१२.७) कहा है - तेषामहं समुद्धर्ता । परमेश्र्वर स्वयं ऐसे भक्त का उद्धार करते हैं । यही जीवन की सर्वोच्च सिद्धि है । कोई चाहे जिस वृत्ति परक कार्य में लगा हो, यदि वह परमेश्र्वर की सेवा करता है, तो उसे सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त होती है ।








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