अध्याय 5 श्लोक 6
भक्ति में लगे
बिना केवल समस्त कर्मों का परित्याग करने से कोई सुखी नहीं बन सकता |
परन्तु भक्ति में लगा हुआ विचारवान व्यक्ति शीघ्र ही परमेश्र्वर को प्राप्त
कर लेता है |
अध्याय 5 : कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
श्लोक 5 . 6
संन्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगतः |
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति || ६ ||
संन्यासः – संन्यास आश्रम; तु – लेकिन; महाबाहो –
हे बलिष्ठ भुजाओं वाले; दुःखम् – दुख; आप्तुम् – से प्रभावित; अयोगतः –
भक्ति के बिना; योग-युक्तः – भक्ति में लगा हुआ; मुनिः – चिन्तक; ब्रह्म –
परमेश्र्वर को; न चिरेण – शीघ्र ही; अधिगच्छति – प्राप्त करता है |
भावार्थ
भक्ति में लगे
बिना केवल समस्त कर्मों का परित्याग करने से कोई सुखी नहीं बन सकता |
परन्तु भक्ति में लगा हुआ विचारवान व्यक्ति शीघ्र ही परमेश्र्वर को प्राप्त
कर लेता है |
संन्यासी दो
प्रकार के होते हैं | मायावादी संन्यासी सांख्यदर्शन के अध्ययन में लगे
रहते हैं तथा वैष्णव संन्यासी वेदान्त सूत्रों के यथार्थ भाष्य भागवत-दर्शन
के अध्ययन में लगे रहते हैं | मायावादी संन्यासी भी वेदान्त सूत्रों का
अध्ययन करते हैं, किन्तु वे शंकराचार्य द्वारा प्रणीत शारीरिक भाष्य का
उपयोग करता हैं |भागवत सम्प्रदाय के छात्र पांचरा त्रिकी विधि से भगवान् की
भक्ति करने में लगे रहते हैं | अतः वैष्णव संन्यासियों को भगवान् की
दिव्यसेवा के लिए अनेक प्रकार के कार्य करने होते हैं | उन्हें भौतिक
कार्यों से सरोकार नहीं रहता, किन्तु तो भी वे भगवान् की भक्ति में नाना
प्रकार के कार्य करते हैं | किन्तु मायावादी संन्यासी, जो सांख्य तथा
वेदान्त के अध्ययन एवं चिन्तन में लगे रहते हैं, वे भगवान् की दिव्य भक्ति
का आनन्द नहीं उठा पाते | चूँकि उनका अध्ययन अत्यन्त जटिल होता है, अतः वे
कभी-कभी ब्रह्मचिन्तन से ऊब कर समुचित बोध के बिना भागवत की शरण ग्रहण करते
हैं | फलस्वरूप श्रीमद्भागवत का भी अध्ययन उनके लिए कष्टकर होता है |
मायावादी संन्यासियों का शुष्क चिन्तन तथा कृत्रिम साधनों से निर्विशेष
विवेचना उनके लिए व्यर्थ होती है | भक्ति में लगे हुए वैष्णव संन्यासी अपने
दिव्य कर्मों को करते हुए प्रसन्न रहते हैं और यह भी निश्चित रहता है कि
वे भगवद्धाम को प्राप्त होंगे ! मायावादी संन्यासी कभी-कभी
आत्म-साक्षात्कार के पथ से निचे गिर जाते हैं और फिर से समाजसेवा, परोपकार
जैसे भौतिक कर्म में प्रवृत्त होते हैं | अतः निष्कर्ष यह निकला कि
कृष्णभावनामृत के कार्यों में लगे रहने वाले लोग ब्रह्म-अब्रहम विषयक
साधारण चिन्तन में लगे संन्यासियों से श्रेष्ठ हैं, यद्यपि वे भी अनेक
जन्मों के बाद कृष्णभावनाभावित हो जाते हैं |
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