अध्याय 3 श्लोक 18
स्वरुपसिद्ध व्यक्ति के लिए न तो अपने नियत कर्मों को करने की आवश्यकता रह जाती है, न ऐसा कर्म न करने का कोई कारण ही रहता है | उसे किसी अन्य जीव पर निर्भर रहने की आवश्यकता भी नहीं रह जाती |
अध्याय 3 : कर्मयोग
श्लोक 3 . 18
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्र्चन |
न चास्य सर्वभूतेषु कश्र्चिदर्थव्यपाश्रयः || १८ ||
न – कभी नहीं;
एव – निश्चय ही; तस्य – उसका; कृतेन – कार्यसम्पादन से; अर्थः – प्रयोजन; न
– न तो; अकृतेन – कार्य न करने से; इह – इस संसार में; कश्र्चन – जो कुछ
भी; न – कभी नहीं; च – तथा; अस्य – उसका; सर्वभूतेषु – समस्त जीवों में;
कश्र्चित् – कोई; अर्थ – प्रयोजन; व्यपाश्रयः – शरणागत |
भावार्थ
स्वरुपसिद्ध व्यक्ति के लिए न तो अपने नियत कर्मों को करने की आवश्यकता रह जाती है, न ऐसा कर्म न करने का कोई कारण ही रहता है | उसे किसी अन्य जीव पर निर्भर रहने की आवश्यकता भी नहीं रह जाती |
तात्पर्य
स्वरुपसिद्ध
व्यक्ति को कृष्णभावनाभावित कर्म के अतिरिक्त कुछ भी करना नहीं होता |
किन्तु यह कृष्णभावनामृत निष्क्रियता भी नहीं है, जैसा कि अगले श्लोकों में
बताया जाएगा | कृष्णभावनाभावित व्यक्ति किसी की शरण ग्रहण नहीं करता –
चाहे वह मनुष्य हो या देवता | कृष्णभावनामृत में वह जो भी करता है कि उसके
कर्तव्य-सम्पादन के लिए पर्याप्त है |
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
11 12 13 14 15 16 17 18 19 20
21 22 23 24 25 26 27 28 29 30
31 32 33 34 35 36 37 38 39 40
41 42 43
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
11 12 13 14 15 16 17 18 19 20
21 22 23 24 25 26 27 28 29 30
31 32 33 34 35 36 37 38 39 40
41 42 43
<< © सर्वाधिकार सुरक्षित , भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट >>
Note : All material used here belongs only and only to BBT .
For Spreading The Message Of Bhagavad Gita As It Is
By Srila Prabhupada in Hindi ,This is an attempt to make it available online ,
if BBT have any objection it will be removed .
No comments:
Post a Comment
Hare Krishna !!