अध्याय 4 श्लोक 20
अपने कर्मफलों की सारी आसक्ति को त्याग कर सदैव संतुष्ट तथा स्वतन्त्र रहकर वह सभी प्रकार के कार्यों में व्यस्त रहकर भी कोई सकाम कर्म नहीं करता |
अध्याय 4 : दिव्य ज्ञान
श्लोक 4 . 20
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्य तृप्तो निराश्रयः |
कर्मण्यभिप्रवृत्तोSपि नैव किञ्चित्करोति सः || २० ||
त्यक्त्वा – त्याग कर; कर्म-फल-आसङ्गम् – कर्मफल
की आसक्ति; नित्य – सदा; तृप्तः – तृप्त; निराश्रयः – आश्रयरहित; कर्मणि –
कर्म में; अभिप्रवृत्तः – पूर्ण तत्पर रह कर; अपि – भी; न – नहीं; एव –
निश्चय ही; किञ्चित् – कुछ भी; करोति – करता है; सः – वह |
भावार्थ
अपने कर्मफलों की सारी आसक्ति को त्याग कर सदैव संतुष्ट तथा स्वतन्त्र रहकर वह सभी प्रकार के कार्यों में व्यस्त रहकर भी कोई सकाम कर्म नहीं करता |
तात्पर्य
कर्मों के
बन्धन से इस प्रकार की मुक्ति तभी सम्भव है, जब मनुष्य कृष्णभावनाभावित
होकर कर कार्य कृष्ण के लिए करे | कृष्णभावनाभावित व्यक्ति भगवान् के शुद्ध
प्रेमवश ही कर्म करता है, फलस्वरूप उसे कर्मफलों के प्रति कोई आकर्षण नहीं
रहता | यहाँ तक कि उसे अपने शरीर-निर्वाह के प्रति भी कोई आकर्षण नहीं
रहता, क्योंकि वह पूर्णतया कृष्ण पर आश्रित रहता है | वह न तो किसी वस्तु
को प्राप्त करना चाहता है और न अपनी वस्तुओं की रक्षा करना चाहता है | वह
अपनी पूर्ण सामर्थ्य से अपना कर्तव्य करता है और कृष्ण पर सब कुछ छोड़ देता
है | ऐसा अनासक्त व्यक्ति शुभ-अशुभ कर्मफलों से मुक्त रहता है | अतः
कृष्णभावनामृत से रहित कोई भी कार्य करता पर बन्धनस्वरूप होता है और विकर्म
का यही असली रूप है, जैसा कि पहले बताया जा चुका है |
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