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Saturday 4 April 2020

अध्याय 15 श्लोक 15 - 20 , BG 15 - 20 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 15 श्लोक 20



हे अनघ! यह वैदिक शास्त्रों का सर्वाधिक गुप्त अंश है, जिसे मैंने अब प्रकट किया है | जो कोई इसे समझता है, वह बुद्धिमान हो जाएगा और उसके प्रयास पूर्ण होंगे |


अध्याय 15 : पुरुषोत्तम योग

श्लोक 15.20



इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ |

एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्र्च भारत || २० ||




इति - इस प्रकार; गुह्य-तमम् - सर्वाधिक गुप्त; शास्त्रम् - शास्त्र; इदम् - यह; उक्तम् - प्रकट किया गया; मया - मेरे द्वारा; अनघ - हे पापरहित; एतत् - यह; बुद्ध्वा - समझ कर; बुद्धिमान - बुद्धिमान; स्यात् - हो जाता है; कृत-कृत्यः - अपने प्रयत्नों में परम पूर्ण; - तथा; भारत - हे भरतपुत्र |




भावार्थ



हे अनघ! यह वैदिक शास्त्रों का सर्वाधिक गुप्त अंश है, जिसे मैंने अब प्रकट किया है | जो कोई इसे समझता है, वह बुद्धिमान हो जाएगा और उसके प्रयास पूर्ण होंगे |




तात्पर्य



भगवान् ने यहाँ स्पष्ट किया है कि यही सारे शास्त्रों का सार है और भगवान् ने इसे जिस रूप में कहा है उसे उसी रूप में समझा जाना चाहिए | इस तरह मनुष्य बुद्धिमान तथा दिव्य ज्ञान में पूर्ण हो जाएगा | दूसरे शब्दों में, भगवान् के इस दर्शन को समझने तथा उनकी दिव्य सेवा में प्रवृत्त होने से प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति के गुणों के समस्त कल्मष से मुक्त हो सकता है | भक्ति आध्यात्मिक ज्ञान की एक विधि है | जहाँ भी भक्ति होती है, वहाँ भौतिक कल्मष नहीं रहता | भगवद्भक्ति तथा स्वयं भगवान् एक हैं, क्योंकि दोनों आध्यात्मिक हैं | भक्ति परमेश्र्वर की अन्तरंगा शक्ति के भीतर होती है | भगवान् सूर्य के समान हैं और अज्ञान अंधकार है | जहाँ सूर्य विद्यमान है, वहाँ अंधकार का प्रश्न ही नहीं उठता | अतएव जब भी प्रामाणिक गुरु के मार्गदर्शन के अन्तर्गत भक्ति की जाती है, तो अज्ञान का प्रश्न ही नहीं उठता |


प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि इस कृष्णभावनामृत को ग्रहण करे और बुद्धिमान तथा शुद्ध बनने के लिए भक्ति करे | जब तक कोई कृष्ण को इस प्रकार नहीं समझता और भक्ति में प्रवृत्त नहीं होता, तब तक सामान्य मनुष्य की दृष्टि में कोई कितना बुद्धिमान क्यों न हो, वह पूर्णतया बुद्धिमान नहीं है |


जिस अनघ शब्द से अर्जुन को संबोधित किया गया है, वह सार्थक है | अनघ अर्थात् "हे निष्पाप" का अर्थ है कि जब तक मनुष्य पापकर्मों से मुक्त नहीं हो जाता, तब तक कृष्ण को समझ पाना कठिन है | उसे समस्त कल्मष, समस्त पापकर्मों से मुक्त होना होता है, तभी वह समझ सकता है | लेकिन भक्ति इतनी शुद्ध तथा शक्तिमान् होती है कि एक बार भक्ति में प्रवृत्त होने पर मनुष्य स्वतः निष्पाप हो जाता है |


शुद्ध भक्तों की संगति में रहकर पूर्ण कृष्णभावनामृत में भक्ति करते हुए कुछ बैटन को बिलकुल ही दूर कर देना चाहिए | सबसे महत्त्वपूर्ण बात जिस पर विजय पानी है, वह है हृदय की दुर्बलता | पहला पतन प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की इच्छा के कारण होता है | इस तरह मनुष्य भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति को त्याग देता है | दूसरी हृदय की दुर्बलता है कि जब कोई अधिकाधिक प्रभुत्व जताने की इच्छा करता है, तो वह भौतिक पदार्थ के स्वामित्व के प्रति आसक्त हो जाता है | इस संसार की सारी समस्याएँ इन्हीं हृदय की दुर्बलताओं के कारण हैं | इस अध्याय के प्रथम पाँच श्लोकों में हृदय की इन्हीं दुर्बलताओं से अपने को मुक्त करने की विधि का वर्णन हुआ है और छठे श्लोक से अंतिम श्लोक तक पुरुषोत्तम योग की विवेचना हुई है |


इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के पन्द्रहवें अध्याय "पुरुषोत्तम योग" का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूरा हुआ |






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Note : All material used here belongs only and only to BBT .
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By Srila Prabhupada in Hindi ,This is an attempt to make it available online , 
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