Translate

Friday 3 April 2020

अध्याय 13 श्लोक 13 - 22 , BG 13 - 22 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 13 श्लोक 22

इस प्रकार जीव प्रकृति के तीनों गुणों का भोग करता हुआ प्रकृति में ही जीवन बिताता है | यह उस प्रकृति के साथ उसकी संगति के कारण है | इस तरह उसे उत्तम तथा अधम योनियाँ मिलती रहती हैं |


अध्याय 13 : प्रकृति, पुरुष तथा चेतना

श्लोक 13.22




पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् |
कारणं गुणसङ्गोSस्य सदसद्योनिजन्मसु || २२ ||



पुरुषः - जीव; प्रकृतिस्थः - भौतिक शक्ति में स्थित होकर; हि - निश्चय ही; भुङ्क्ते - भोगता है; प्रकृति-जान् - प्रकृति से उत्पन्न; गुणान् - गुणों को; कारणम् - कारण; गुण-सङ्गः - प्रकृति के गुणों की संगति; अस्य - जीव की; सत्-असत् - अच्छी तथा बुरी; योनि - जीवन की योनियाँ; जन्मसु - जन्मों में |


भावार्थ


इस प्रकार जीव प्रकृति के तीनों गुणों का भोग करता हुआ प्रकृति में ही जीवन बिताता है | यह उस प्रकृति के साथ उसकी संगति के कारण है | इस तरह उसे उत्तम तथा अधम योनियाँ मिलती रहती हैं |



तात्पर्य




यह श्लोक यह समझने के लिए महत्त्वपूर्ण है कि जीव एक शरीर से दूसरे शरीर में किस प्रकार देहान्तरण करता है | दूसरे अध्याय में बताया गया है कि जीव एक शरीर को त्याग कर दूसरा शरीर उसी तरह धारण करता है, जिस प्रकार कोई वस्त्र बदलता है | वस्त्र का परिवर्तन इस संसार के प्रति आसक्ति के कारण है | जब तक जीव इस मिथ्या प्राकट्य पर मुग्ध रहता है, तब तक उसे निरन्तर देहान्तरण करना पड़ता है | प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की इच्छा के फलस्वरूप वह ऐसी प्रतिकूल परिस्थितयों में फँसता रहता है | भौतिक इच्छा के वशीभूत हो, उसे कभी देवता के रूप में, तो कभी मनुष्य के रूप में, कभी पशु, कभी पक्षी, कभी कीड़े, कभी जल-जन्तु, कभी सन्त पुरुष, तो कभी खटमल के रूप में जन्म लेना होता है | यह क्रम चलता रहता है और प्रत्येक परिस्थिति में जीव अपने को परिस्थितियों का स्वामी मानता रहता है, जबकि वह प्रकृति के वश में होता है |
.
यहाँ पर बताया गया है कि जीव किस प्रकार विभिन्न शरीरों को प्राप्त करता है | यह प्रकृति के विभिन्न गुणों की संगति के कारण है | अतएव इन गुणों से ऊपर उठकर दिव्य पद पर स्थित होना होता है | यही कृष्णभावनामृत कहलाता है | कृष्णभावनामृत में स्थित हुए बिना भौतिक चटना मनुष्य को एक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तरण करने के लिए बाध्य करती रहती है, क्योंकि अनादि काल से उसमें भौतिक आकांक्षाएँ व्याप्त हैं | लेकिन उसे इस विचार को बदलना होगा | यह परिवर्तन प्रमाणिक स्त्रोतों से सुनकर ही लाया जा सकता है | इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण अर्जुन है, जो कृष्ण से ईश्र्वर-विज्ञान का श्रवण करता है | यदि जीव इस श्रवण-विधि को अपना ले, तो प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की चिर-अभिलषित आकांक्षा समाप्त हो जाए, और क्रमशः ज्यों-ज्यों वह प्रभुत्व जताने की इच्छा को कम करता जाएगा, त्यों-त्यों उसे आध्यात्मिक सुख मिलता जाएगा | एक वैदिक मंत्र में कहा गया है कि ज्यों-ज्यों जीव भगवान् की संगति से विद्वान बनता जाता है, त्यों-त्यों उसी अनुपात में वह आनन्दमाय जीवन का आस्वादन करता है |






<< © सर्वाधिकार सुरक्षित भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट >>




Note : All material used here belongs only and only to BBT .
For Spreading The Message Of Bhagavad Gita As It Is 
By Srila Prabhupada in Hindi ,This is an attempt to make it available online , 
if BBT have any objection it will be removed .

No comments:

Post a Comment

Hare Krishna !!