अध्याय 5 श्लोक 20
जो न तो प्रिय
वस्तु को पाकर हर्षित होता है और न अप्रिय को पाकर विचलित होता है, जो
स्थिरबुद्धि है, जो मोहरहित और भगवद्विद्या को जानने वाला है वह पहले से ही
ब्रह्म में स्थित रहता है |
अध्याय 5 : कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
श्लोक 5 . 20
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् |
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः || २० ||
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः || २० ||
न – कभी नहीं; प्रह्रष्ये – हर्षित होता है; प्रियम् – प्रिय को; प्राप्य – प्राप्त करके; न – नहीं; उद्विजेत् – विचलित होता है; प्राप्य – प्राप्त करके; च – भी; अप्रियम् – अप्रिय को; स्थिर-बुद्धिः – आत्मबुद्धि, कृष्णचेतना; असम्मूढः – मोहरहित, संशयरहित; ब्रह्म-वित् – परब्रह्म को जानने वाला; ब्रह्मणि – ब्रह्म में; स्थितः – स्थित |
भावार्थ
जो न तो प्रिय
वस्तु को पाकर हर्षित होता है और न अप्रिय को पाकर विचलित होता है, जो
स्थिरबुद्धि है, जो मोहरहित और भगवद्विद्या को जानने वाला है वह पहले से ही
ब्रह्म में स्थित रहता है |
तात्पर्य
यहाँ
पर स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के लक्षण दिये गये हैं | पहला लक्षण यह है कि
उसमें शरीर और आत्मतत्त्व के तादात्म्य का भ्रम नहीं रहता | वह यह भलीभाँति
जानता है कि मैं यह शरीर नहीं हूँ, अपितु भगवान् का एक अंश हूँ | अतः कुछ
प्राप्त होने पर न तो उसे प्रसन्नता होती है और न शरीर की कुछ हानि होने पर
शोक होता है | मन की यह स्थिरता स्थिरबुद्धि या आत्मबुद्धि कहलाती है |
अतः वह न तो स्थूल शरीर को आत्मा मानने की भूल करके मोहग्रस्त होता है और न
शरीर को स्थायी मानकर आत्मा के अस्तित्व को ठुकराता है | इस ज्ञान के कारण
वह परमसत्य अर्थात् ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् के ज्ञान को भलीभाँति जान
लेता है | इस प्रकार वह अपने स्वरूप को जानता है और परब्रह्म से हर बात
में तदाकार होने का कभी यत्न नहीं करता | इसे ब्रह्म-साक्षात्कार या
आत्म-साक्षात्कार कहते हैं | ऐसी स्थिरबुद्धि कृष्णभावनामृत कहलाती है |
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