अध्याय 6 श्लोक 27
जिस योगी का मन मुझ में स्थिर रहता है, वह निश्चय ही दिव्यसुख की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करता है | वह रजोगुण से परे हो जाता है, वह परमात्मा के साथ अपनी गुणात्मक एकता को समझता है और इस प्रकार अपने समस्त विगत कर्मों के फल से निवृत्त हो जाता है |
अध्याय 6 : ध्यानयोग
श्लोक 6 . 27
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् |
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् || २७ ||
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् |
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् || २७ ||
प्रशान्त – कृष्ण के चरणकमलों में स्थित; मनसम् –
जिसका मन; हि –
निश्चय ही; एनम् –
यह; योगिनम् –
योगी; सुखम् –
सुख; उत्तमम् –
सर्वोच्च; उपैति –
प्राप्त करता है; शान्त-रजसम् –
जिसकी कामेच्छा शान्त हो
चुकी है; ब्रह्म-भूतम् – परमात्मा के साथ अपनी पहचान द्वारा मुक्ति; अकल्मषम् –
समस्त पूर्व पापकर्मों से
मुक्त |
भावार्थ
जिस योगी का मन मुझ में स्थिर रहता है, वह निश्चय ही दिव्यसुख की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करता है | वह रजोगुण से परे हो जाता है, वह परमात्मा के साथ अपनी गुणात्मक एकता को समझता है और इस प्रकार अपने समस्त विगत कर्मों के फल से निवृत्त हो जाता है |
तात्पर्य
ब्रह्मभूत वह अवस्था है जिसमें भौतिक कल्मष से मुक्त होकर भगवान् की दिव्यसेवा में स्थित हुआ जाता है | मद्भक्तिं लभते पराम् (भगवद्गीता १८.५४) | जब तक मनुष्य का मन भगवान् के चरणकमलों में स्थिर नहीं हो जाता तब तक कोई ब्रह्मरूप में नहीं रह सकता | स वै मनः कृष्णपदारविन्दयोः | भगवान् की दिव्य प्रेमभक्ति में निरन्तर प्रवृत्त रहना या कृष्णभावनामृत में रहना वस्तुतः रजोगुण तथा भौतिक कल्मष से मुक्त होना है |
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