अध्याय 17 श्लोक 12
लेकिन हे भरतश्रेष्ठ! जो यज्ञ किसी भौतिक लाभ के लिए गर्ववश किया जाता है, उसे तुम राजसी जानो |
अध्याय 17 : श्रद्धा के विभाग
श्लोक 17.12
अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् |इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् || १२ ||
अभिसन्धाय - इच्छा कर के; तु - लेकिन; फलम् - फल को; दम्भ - घमंड; अर्थम् - के लिए; अपि - भी; च - तथा; एव - निश्चय ही; यत् - जो; इज्यते - किया जाता है; भरत-श्रेष्ठ - हे भरतवंशियों में प्रमुख; तम् - उस; यज्ञम् - यज्ञ को; विद्धि - जानो; राजसम् - रजोगुणी |
भावार्थ
लेकिन हे भरतश्रेष्ठ! जो यज्ञ किसी भौतिक लाभ के लिए गर्ववश किया जाता है, उसे तुम राजसी जानो |
भावार्थ
लेकिन हे भरतश्रेष्ठ! जो यज्ञ किसी भौतिक लाभ के लिए गर्ववश किया जाता है, उसे तुम राजसी जानो |
तात्पर्य
<< © सर्वाधिकार सुरक्षित , भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट >>
Note : All material used here belongs only and only to BBT .
For Spreading The Message Of Bhagavad Gita As It Is
By Srila Prabhupada in Hindi ,This is an attempt to make it available online ,
if BBT have any objection it will be removed .
No comments:
Post a Comment
Hare Krishna !!