अध्याय 18 श्लोक 75
व्यास की कृपा से मैंने ये परम गुह्य बातें साक्षात् योगेश्वर कृष्ण के मुख से अर्जुन के प्रति कही जाती हुई सुनीं ।
अध्याय 18 : उपसंहार - संन्यास की सिद्धि
श्लोक 18.75
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् |
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् |
योगं योगेश्र्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् || ७५ ||
व्यास-प्रसादात् - व्यासदेव की कृपा से;श्रुतवान् - सुना है; एतत् - इस; गुह्यम् - गोपनीय; अहम् - मैंने; परम् - परम; योगम् - योग को; योग-इश्र्वरात् - योग के स्वामी; कृष्णात् - कृष्ण से; साक्षात् - साक्षात्;कथयतः - कहते हुए; स्वयम् - स्वयं ।
भावार्थ
भावार्थ
व्यास की कृपा से मैंने ये परम गुह्य बातें साक्षात् योगेश्वर कृष्ण के मुख से अर्जुन के प्रति कही जाती हुई सुनीं ।
तात्पर्य
व्यास संजय के गुरु थे और संजय स्वीकार करते हैं कि व्यास की कृपा से ही वे भगवान् को समझ सके । इसका अर्थ यह हुआ कि गुरु के माध्यम से ही कृपा को समझना चाहिए, प्रत्यक्ष रूप से नहीं । गुरु स्वच्छ माध्यम है, यद्यपि अनुभव फिर भी प्रत्यक्ष ही होता है । गुरु-परम्परा का यही रहस्य है । जब गुरु प्रामाणिक हो तो भगवद्गीता का प्रत्यक्ष श्रवण किया जा सकता है,जैसा अर्जुन ने किया । संसार भर में अनेक योगी हैं, लेकिन कृष्ण योगेश्र्वर हैं | उन्होंने भगवद्गीता में स्पष्ट उपदेश दिया है, “मेरी शरण में आओ | जो ऐसा करता है वह सर्वोच्च योगी है |” छठे अध्याय के अन्तिम श्लोक में इसकी पुष्टि हुई है – योगिनाम् अपि सर्वेषाम् |
नारद कृष्ण के शिष्य हैं और व्यास के गुरु | अतएव व्यास अर्जुन के ही समान प्रामाणिक हैं, क्योंकि वे गुरु-परम्परा में आते हैं और संजय व्यासदेव के शिष्य हैं | अतएव व्यास की कृपा से संजय की इन्द्रियाँ विमल हो सकीं और वे कृष्ण का साक्षात् दर्शन कर सके तथा उनकी वार्ता सुन सके | जो व्यक्ति कृष्ण का प्रत्यक्ष दर्शन करता है, वह इस गुह्यज्ञान को समझ सकता है | यदि वह गुरु-परम्परा में नहीं होता तो वह कृष्ण की वार्ता नहीं सुन सकता | अतएव उसका ज्ञान सदैव अधुरा रहता है, विशेषतया जहाँ तक भगवद्गीता समझने का प्रश्न है |
भगवद्गीता में योग की समस्त पद्धतियों का – कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग का वर्णन हुआ है | श्रीकृष्ण इन समस्त योगों के स्वामी हैं | लेकिन यह समझ लेना चाहिए कि जिस तरह अर्जुन कृष्ण को प्रत्यक्षतः समझ सकने के लिए भाग्यशाली था, उसी प्रकार व्यासदेव की कृपा से संजय भी कृष्ण को साक्षात् सुनने में समर्थ हो सका | वस्तुतः कृष्ण से प्रत्यक्षतः सुनने एवं व्यास जैसे गुरु के माध्यम से प्रत्यक्ष सुनने में कोई अन्तर नहीं है | गुरु भी व्यासदेव का प्रतिनिधि होता है | अतएव वैदिक पद्धति के अनुसार अपने गुरु के जन्मदिन पर शिष्यगण व्यास पूजा नामक उत्सव रचाते हैं |
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