अध्याय 16 श्लोक 11 - 15
उनका विश्र्वास है कि इन्द्रियों की तुष्टि ही मानव सभ्यता की मूल आवश्यकता है | इस प्रकार मरणकाल तक उनको अपार चिन्ता होती रहती है | वे लाखों इच्छाओं के जाल में बँधकर तथा काम और क्रोध में लीन होकर इन्द्रियतृप्ति के लिए अवैध ढंग से धनसंग्रह करते हैं |
आसुरी व्यक्ति सोचता है, आज मेरे पास इतना धन है और अपनी योजनाओं से मैं और अधिक धन कमाऊँगा | इस समय मेरे पास इतना है किन्तु भविष्य में यह बढ़कर और अधिक हो जायेगा | वह मेरा शत्रु है और मैंने उसे मार दिया है और मेरे अन्य शत्रु भी मार दिये जाएंगे | मैं सभी वस्तुओं का स्वामी हूँ | मैं भोक्ता हूँ | मैं सिद्ध, शक्तिमान् तथा सुखी हूँ | मैं सबसे धनी व्यक्ति हूँ और मेरे आसपास मेरे कुलीन सम्बन्धी हैं | कोई अन्य मेरे समान शक्तिमान तथा सुखी नहीं है | मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और इस तरह आनन्द मनाऊँगा | इस प्रकार ऐसे व्यक्ति अज्ञानवश मोहग्रस्त होते रहते हैं |
अध्याय 16 : दैवी और आसुरी स्वभाव
श्लोक 16.11 - 15
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः |
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः |
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्र्चिताः || ११ ||
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आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः |
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान् || १२ ||
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इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् |
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् || १३ ||
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असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि |
इश्र्वरोSहमहं भोगी सिद्धोSहं बलवान्सुखी || १४ ||
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आढ्योSभिजनवानस्मि कोSन्योSस्ति सदृशो मया |
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानमोहिताः || १५ ||
चिन्ताम् - भय तथा चिन्ताओं का; अपरिमेयाम् - अपार; च - तथा; प्रलय-अन्ताम् - मरणकाल तक; उपाश्रिताः - शरणागत; काम-उपभोग - इन्द्रियतृप्ति; परमाः - जीवन का परम लक्ष्य; एतावत् - इतना; इति - इस प्रकार; निश्र्चिताः - निश्चित करके; आशा-पाश - आशा रूप बन्धन; शतैः - सैकड़ों के द्वारा; बद्धाः - बँधे हुए; काम - काम; क्रोधः - तथा क्रोध में; परायणाः - सदैव स्थित; ईहन्ते - इच्छा करते हैं; काम - काम; भोग - इन्द्रियभोग; अर्थम् - के निमित्त; अन्यायेन - अवैध रूप से; अर्थ - धन का; सञ्चयान् - संग्रह |
इदम् - यह; अद्य - आज; मया - मेरे द्वारा; लब्धम् - प्राप्त; इमम् - इसे; प्राप्यते - प्राप्त करूँगा; मनः-रथम् - इच्छित; इदम् - यह; अस्ति - है; इदम् - यह; अपि - भी; मे - मेरा; भविष्यति - भविष्य में बढ़ जायगा; पुनः - फिर; धनम् - धन; असौ - वह; मया - मेरे; हतः - मारा गया; शत्रुः - शत्रु; हनिष्ये - मारूँगा; च - भी; अपरान् - अन्यों को; अपि - निश्चय ही; ईश्र्वरः - प्रभु, स्वामी; अहम् - मैं हूँ; अहम् - मैं हूँ; भोगी - भोक्ता; सिद्धः - सिद्ध; अहम् - मैं हूँ; बलवान् - शक्तिशाली; सुखी - प्रसन्न; आढ्यः - धनी; अभिजन-वान् - कुलीन सम्बन्धियों से घिरा; अस्मि - मैं हूँ; कः - कौन; अन्यः - दूसरा; अस्ति - है; सदृशः - समान; मया - मेरे द्वारा; यक्ष्ये - मैं यज्ञ करूँगा; दास्यामि - दान दूँगा; मोदिष्ये - आमोद-प्रमोद मनाऊँगा; इति - इस प्रकार; अज्ञान - अज्ञानतावश; विमोहिताः - मोहग्रस्त |
भावार्थ
उनका विश्र्वास है कि इन्द्रियों की तुष्टि ही मानव सभ्यता की मूल आवश्यकता है | इस प्रकार मरणकाल तक उनको अपार चिन्ता होती रहती है | वे लाखों इच्छाओं के जाल में बँधकर तथा काम और क्रोध में लीन होकर इन्द्रियतृप्ति के लिए अवैध ढंग से धनसंग्रह करते हैं |
आसुरी व्यक्ति सोचता है, आज मेरे पास इतना धन है और अपनी योजनाओं से मैं और अधिक धन कमाऊँगा | इस समय मेरे पास इतना है किन्तु भविष्य में यह बढ़कर और अधिक हो जायेगा | वह मेरा शत्रु है और मैंने उसे मार दिया है और मेरे अन्य शत्रु भी मार दिये जाएंगे | मैं सभी वस्तुओं का स्वामी हूँ | मैं भोक्ता हूँ | मैं सिद्ध, शक्तिमान् तथा सुखी हूँ | मैं सबसे धनी व्यक्ति हूँ और मेरे आसपास मेरे कुलीन सम्बन्धी हैं | कोई अन्य मेरे समान शक्तिमान तथा सुखी नहीं है | मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और इस तरह आनन्द मनाऊँगा | इस प्रकार ऐसे व्यक्ति अज्ञानवश मोहग्रस्त होते रहते हैं |
भावार्थ
उनका विश्र्वास है कि इन्द्रियों की तुष्टि ही मानव सभ्यता की मूल आवश्यकता है | इस प्रकार मरणकाल तक उनको अपार चिन्ता होती रहती है | वे लाखों इच्छाओं के जाल में बँधकर तथा काम और क्रोध में लीन होकर इन्द्रियतृप्ति के लिए अवैध ढंग से धनसंग्रह करते हैं |
आसुरी व्यक्ति सोचता है, आज मेरे पास इतना धन है और अपनी योजनाओं से मैं और अधिक धन कमाऊँगा | इस समय मेरे पास इतना है किन्तु भविष्य में यह बढ़कर और अधिक हो जायेगा | वह मेरा शत्रु है और मैंने उसे मार दिया है और मेरे अन्य शत्रु भी मार दिये जाएंगे | मैं सभी वस्तुओं का स्वामी हूँ | मैं भोक्ता हूँ | मैं सिद्ध, शक्तिमान् तथा सुखी हूँ | मैं सबसे धनी व्यक्ति हूँ और मेरे आसपास मेरे कुलीन सम्बन्धी हैं | कोई अन्य मेरे समान शक्तिमान तथा सुखी नहीं है | मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और इस तरह आनन्द मनाऊँगा | इस प्रकार ऐसे व्यक्ति अज्ञानवश मोहग्रस्त होते रहते हैं |
तात्पर्य
आसुरी मनुष्य, जो ईश्र्वर या अपने अन्तर में स्थित परमात्मा में श्रद्धा नहीं रखता, केवल इन्द्रियतृप्ति के लिए सभी प्रकार के पापकर्म करता रहता है | वह नहीं जानता कि उसके हृदय के भीतर एक साक्षी बैठा है | परमात्मा प्रत्येक जीवात्मा के कार्यों को देखता रहता है | जैसा कि उपनिषदों में कहा गया है कि एक वृक्ष में दो पक्षी बैठे हैं, एक पक्षी कर्म करता हुआ टहनियों में लगे सुख-दुख रूपी फलों को भोग रहा है और दूसरा उसका साक्षी है | लेकिन आसुरी मनुष्य को न तो वैदिकशास्त्र का ज्ञान है, न कोई श्रद्धा है | अतएव वह इन्द्रियभोग के लिए कुछ भी करने के लिए अपने को स्वतन्त्र मानता है, उसे परिणाम की परवाह नहीं रहती |
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Hare Krishna !!