अध्याय 12 श्लोक 18 - 19
अध्याय 12 : भक्तियोग
श्लोक 12.18 - 19
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो: |
शीतोष्णसुखदु:खेषु समः सङ्गविवर्जितः || १८ ||
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित् |
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः || १९ ||
भावार्थ
भावार्थ
तात्पर्य
भक्त सदैव कुसंगति से दूर रहता है | मानव समाज का यह स्वभाव है कि कभी किसी की प्रशंसा की जाती है, तो कभी उसकी निन्दा की जाती है | लेकिन भक्ति कृत्रिम यश तथा अपयश, दुख या सुख से ऊपर उठा हुआ होता है | वह अत्यन्त धैर्यवान होता है | वह कृष्णकथा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बोलता | अतः उसे मौनी कहा जता है | मौनी का अर्थ यह नहीं कि वह बोले नहीं, अपितु यह कि वह अनर्गल आलाप न करे | मनुष्य को आवश्यकता पर बोलना चाहिए और भक्त के लिए सर्वाधिक अनिवार्य वाणी तो भगवान् के लिए बोलना है | भक्त समस्त परिस्थितियों में सुखी रहता है | कभी उसे स्वादिष्ट भोजन मिलता है तो कभी नहीं, किन्तु वह सन्तुष्ट रहता है | वह आवास की सुविधा की चिन्ता नहीं करता | वह कभी पेड़ के निचे रः सकता है, तो कभी अत्यन्त उच्च प्रसाद में, किन्तु वह इनमें से किसी के प्रति आसक्त नहीं रहता | वह स्थिर कहलाता है, क्योंकि वह अपने संकल्प तथा ज्ञान में दृढ़ होता है | भले ही भक्त के लक्षणों की कुछ पुनरावृत्ति हुई हो, लेकिन यह इस बात पर बल देने के लिए है कि भक्त को ये सारे गुण अर्जित करने चाहिए | सद्गुणों के बिना कोई शुद्ध भक्त नहीं बन सकता | हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणाः - जो भक्त नहीं है, उसमें सद्गुण नहीं होता | जो भक्त कहलाना चाहता है, उसे सद्गुणों का विकास करना चाहिए | यह अवश्य है कि उसे इन गुणों के लिए अलग से बाह्य प्रयास नहीं करना पड़ता, अपितु कृष्णभावनामृत तथा भक्ति में संलग्न रहने के कारण उसमें ये गुण स्वतः ही विकसित हो जाते हैं |
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