अध्याय 11 श्लोक 24
हे सर्वव्यापी विष्णु!नाना ज्योर्तिमय रंगोंसे युक्त आपको आकाश का स्पर्श करते, मुख फैलाये तथा बड़ी-बड़ी चमकती आँखें निकालेदेखकर भय से मेरा मन विचलित है | मैं न तो धैर्य धारण कर पा रहा हूँ, ण मानसिकसंतुलन ही पा रहा हूँ |
अध्याय 11 : विराट रूप
श्लोक 11 .24
नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं
व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् |
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा
धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो || २४ ||
नभः-स्पृशम् – आकाश छूता हुआ; दीप्तम् – ज्योर्तिमय; अनेक – कई; वर्णम् – रंग; व्याक्त – खुले हुए; आननम् – मुख; दीप्त – प्रदीप्त; विशाल – बड़ी-बड़ी; नेत्रम् – आँखें; दृष्ट्वा – देखकर; हि – निश्चय ही; त्वाम् – आपको; प्रव्यथितः – विचलित, भयभीत; अन्तः – भीतर; आत्मा – आत्मा; धृतिम् – दृढ़ता या धैर्य को; न – नहीं; विन्दामि – प्राप्त हूँ; शमम् – मानसिक शान्ति को; च – भी; विष्णो – हे विष्णु |
भावार्थ
भावार्थ
हे सर्वव्यापी विष्णु!नाना ज्योर्तिमय रंगोंसे युक्त आपको आकाश का स्पर्श करते, मुख फैलाये तथा बड़ी-बड़ी चमकती आँखें निकालेदेखकर भय से मेरा मन विचलित है | मैं न तो धैर्य धारण कर पा रहा हूँ, ण मानसिकसंतुलन ही पा रहा हूँ |
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