अध्याय 5 श्लोक 19
जिनके मन एकत्व
तथा समता में स्थित हैं उन्होंने जन्म तथा मृत्यु के बन्धनों को पहले ही
जीत लिया है | वे ब्रह्म के समान निर्दोष हैं और सदा ब्रह्म में ही स्थित
रहते हैं |
अध्याय 5 : कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
श्लोक 5 . 19
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः |
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः || १९ ||
इह – इस जीवन में; एव – निश्चय ही; तैः – उनके द्वारा; जितः – जीता हुआ; सर्गः – जन्म तथा मृत्यु; येषम् – जिनका; साम्ये – समता में; स्थितम् – स्थित; मनः – मन; निर्दोषम् – दोषरहित; हि – निश्चय ही; समम् – समान; ब्रह्म – ब्रह्म की तरह; तस्मात् – अतः; ब्रह्मणि – परमेश्र्वर में; ते – वे; स्थिताः – स्थित हैं |
भावार्थ
जिनके मन एकत्व
तथा समता में स्थित हैं उन्होंने जन्म तथा मृत्यु के बन्धनों को पहले ही
जीत लिया है | वे ब्रह्म के समान निर्दोष हैं और सदा ब्रह्म में ही स्थित
रहते हैं |
तात्पर्य
जैसा
कि ऊपर कहा गया है मानसिक समता आत्म-साक्षात्कार का लक्षण है | जिन्होंने
ऐसी अवस्था प्राप्त कर ली है, उन्हें भौतिक बंधनों पर, विशेषतया जन्म तथा
मृत्यु पर, विजय प्राप्त किए हुए मानना चाहिए | जब तक मनुष्य शरीर को
आत्मस्वरूप मानता है, वह बद्धजीव माना जाता है, किन्तु ज्योंही वह
आत्म-साक्षात्कार द्वारा समचित्तता की अवस्था को प्राप्त कर लेता है, वह
बद्धजीवन से मुक्त हो जाता है | दूसरे शब्दों में, उसे इस भौतिक जगत् में
जन्म नहीं लेना पड़ता, अपितु अपनी मृत्यु के बाद वह आध्यात्मिक लोक को जाता
है | भगवान् निर्दोष हैं क्योंकि वे आसक्ति अथवा घृणा से रहित हैं | इसी
प्रकार जब जीव आसक्ति अथवा घृणा से रहित होता है तो वह भी निर्दोष बन जाता
है और वैकुण्ठ जाने का अधिकारी हो जाता है | ऐसे व्यक्तियों को पहले से ही
मुक्त मानना चाहिए | उनके लक्षण आगे बतलाये गये हैं |
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