अध्याय 3 श्लोक 37
श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है |
अध्याय 3 : कर्मयोग
श्लोक 3 . 37
श्री भगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः |
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् || ३७ ||
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः |
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् || ३७ ||
भावार्थ
श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है |
तात्पर्य
अपने नित्य वर्धमान चिदानन्द के लिए भगवान् ने अपने आपको अनेक रूपों में विस्तरित कर लिया और जीवात्माएँ उनके इस चिदानन्द के ही अंश हैं | उनको भी आंशिक स्वतन्त्रता प्राप्त है, किन्तु अपनी इस स्वतन्त्रता का दुरूपयोग करके जब वे सेवा को इन्द्रियसुख में बदल देती हैं तो वे काम की चपेट में आ जाती हैं | भगवान् ने इस सृष्टि की रचना जीवात्माओं के लिए इन कामपूर्ण रुचियों की पूर्ति हेतु सुविधा प्रदान करने के निमित्त की और जब जीवात्माएँ दीर्घकाल तक काम-कर्मों में फँसे रहने के कारण पूर्णतया ऊब जाती हैं, तो वे अपना वास्तविक स्वरूप जानने के लिए जिज्ञासा करने लगती हैं |यही जिज्ञासा वेदान्त-सूत्र का प्रारम्भ है जिसमें यः कहा गया है – अथातो ब्रह्मजिज्ञासा – मनुष्य को परम तत्त्व की जिज्ञासा करनी चाहिए | और इस परम तत्त्व की परिभाषा श्रीमद्भागवत में इस प्रकार दि गई है – जन्माद्यस्य यतोSन्वयादितरतश्र्च – सारी वस्तुओं का उद्गम परब्रह्म है | अतः काम का उद्गम भी परब्रह्म से हुआ | अतः यदि काम को भगवत्प्रेम में या कृष्णभावना में परिणत कर दिया जाय, या दुसरे शब्दों में कृष्ण के लिए ही सारी इच्छाएँ हों तो कम तथा क्रोध दोनों ही आध्यात्मिक बन सकेंगे | भगवान् राम के अनन्य सेवक हनुमान ने रावन की स्वर्णपुरी को जलाकर अपना क्रोध प्रकट किया, किन्तु ऐसा करने से वे भगवान् के सबसे बड़े भक्त बन गये | यहाँ पर भी श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रेरित करते हैं कि वे शत्रुओं पर अपना क्रोध भगवान् को प्रसन्न करने के लिए दिखाए | अतः काम तथा क्रोध कृष्णभावनामृत में प्रयुक्त होने पर हमारे शत्रु न रह कर मित्र बन जाते हैं |
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