अध्याय 3 श्लोक 35
अपने
नियतकर्मों को दोषपूर्ण ढंग से सम्पन्न करना भी अन्य के कर्मों को भलीभाँति
करने से श्रेयस्कर है | स्वीय कर्मों को करते हुए मरना पराये कर्मों में
प्रवृत्त होने की अपेक्षा श्रेष्ठतर है, क्योंकि अन्य किसी के मार्ग का
अनुसरण भयावह होता है |
अध्याय 3 : कर्मयोग
श्लोक 3 . 35
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः || ३५ ||
श्रेयान् – अधिक श्रेयस्कर; स्वधर्मः – अपने
नियतकर्म; विगुणः – दोषयुक्त भी; पर-धर्मात् – अन्यों के लिए उल्लेखित
कार्यों की अपेक्षा; सू-अनुष्ठितात् – भलीभाँति सम्पन्न; स्व-धर्मे – अपने
नियत्कर्मों में; निधनम् – विनाश, मृत्यु; श्रेयः – श्रेष्ठतर; पर-धर्मः –
अन्यों के लिए नियतकर्म; भय-आवहः – खतरनाक, डरावना |
भावार्थ
अपने
नियतकर्मों को दोषपूर्ण ढंग से सम्पन्न करना भी अन्य के कर्मों को भलीभाँति
करने से श्रेयस्कर है | स्वीय कर्मों को करते हुए मरना पराये कर्मों में
प्रवृत्त होने की अपेक्षा श्रेष्ठतर है, क्योंकि अन्य किसी के मार्ग का
अनुसरण भयावह होता है |
अतः मनुष्य को
चाहिए कि वह अन्यों ले लिय नियत्कर्मों की अपेक्षा अपने नियत्कर्मों को
कृष्णभावनामृत में करे | भौतिक दृष्टि से नियतकर्म मनुष्य की मनोवैज्ञानिक
दशा के अनुसार भौतिक प्रकृति के गुणों के अधीन आदिष्ट कर्म हैं |
आध्यात्मिक कर्म गुरु द्वारा कृष्ण की दिव्यसेवा के लिए आदेशित होते हैं |
किन्तु चाहे भौतिक कर्म हों या आध्यात्मिक कर्म, मनुष्य को मृत्युपर्यन्त
अपने नियत्कर्मों में दृढ रहना चाहिए | अन्य के निर्धारित कर्मों का अनुकरण
नहीं करना चाहिए | आध्यात्मिक तथा भौतिक स्तरों पर ये कर्म भिन्न-भिन्न हो
सकते हैं, किन्तु कर्ता के लिए किसी प्रमाणिक निर्देशन के पालन का
सिद्धान्त उत्तम होगा | जब मनुष्य प्रकृति के गुणों के वशीभूत हो तो उसे उस
विशेष अवस्था के लिए नियमों का पालन करना चाहिए, उसे अन्यों का अनुकरण
नहीं करना चाहिए | उदारणार्थ, सतोगुणी ब्राह्मण कभी हिंसक नहीं होता,
किन्तु रजोगुणी क्षत्रिय को हिंसक होने की अनुमति है | इस तरह क्षत्रिय के
लिए हिंसा के नियमों का पालन करते हुए विनष्ट होना जितना श्रेयस्कर है उतना
अहिंसा के नियमों का पालन करने वाले ब्राह्मण का अनुकरण नहीं | हर व्यक्ति
को एकाएक नहीं, अपितु क्रमशः अपने हृदय को स्वच्छ बनाना चाहिए | किन्तु जब
मनुष्य प्रकृति के के गुणों को लाँघकर कृष्णभावनामृत में पूर्णतया लीन हो
जाता है, तो वह प्रामाणिक गुरु के निर्देशन में सब कुछ कर सकता है |
कृष्णभावनामृत की पूर्ण स्थिति में एक क्षत्रिय ब्राह्मण की तरह और एक
ब्राह्मण क्षत्रिय की तरह कर्म कर्म कर सकता है | दिव्य अवस्था में भौतिक
जगत् का भेदभाव नहीं रह जाता | उदाहरणार्थ, विश्र्वामित्र मूलतः क्षत्रिय
थे, किन्तु बाद में वे ब्राह्मण हो गये | इसी प्रकार परशुराम पहले ब्राह्मण
थे, किन्तु बाद में वे क्षत्रिय बन गये | ब्रह्म में स्थित होने के कारण
ही वे ऐसा कर सके, किन्तु जब तक कोई भौतिक स्तर पर रहता है, उसे प्रकृति के
गुणों के अनुसार अपने कर्म करने चाहिए | साथ ही उसे कृष्णभावनामृत का पुरा
बोध होना चाहिए |
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