अध्याय 3 श्लोक 34
प्रत्येक
इन्द्रिय तथा उसके विषय से सम्बन्धित राग-द्वेष को व्यवस्थित करने के नियम
होते हैं | मनुष्य को ऐसे राग तथा द्वेष के वशीभूत नहीं होना चाहिए क्योंकि
ये आत्म-साक्षात्कार के मार्ग में अवरोधक हैं |
अध्याय 3 : कर्मयोग
श्लोक 3 . 34
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ |
तयोर्न वशमागच्छेतौ ह्यस्य परिपन्थिनौ || ३४ ||
इन्द्रियस्य – इन्द्रिय का; इन्द्रियस्य-अर्थे –
इन्द्रियविषयों में; राग – आसक्ति; द्वेषौ – तथा विरक्ति; व्यवस्थितौ –
नियमों के अधीन स्थित; तयोः – उनके; न – कभी नहीं; वशम् – नियन्त्रण में;
आगच्छेत् – आना चाहिए; तौ – वे दोनों; हि – निश्चय ही; अस्य – उसका;
परिपन्थिनौ – अवरोधक |
भावार्थ
प्रत्येक
इन्द्रिय तथा उसके विषय से सम्बन्धित राग-द्वेष को व्यवस्थित करने के नियम
होते हैं | मनुष्य को ऐसे राग तथा द्वेष के वशीभूत नहीं होना चाहिए क्योंकि
ये आत्म-साक्षात्कार के मार्ग में अवरोधक हैं |
जो लोग
कृष्णभावनाभावित हैं, वे स्वभाव से भौतिक इन्द्रियतृप्ति में रत होने में
झिझकते हैं | किन्तु जिन लोगों की ऐसी भावना न हो उन्हें शास्त्रों के
यम-नियमों का पालन करना चाहिए | अनियन्त्रित इन्द्रिय-भोग ही भौतिक बन्धन
का कारण है, किन्तु जो शास्त्रों के यम-नियमों का पालन करता है, वह
इन्द्रिय-विषयों में नहीं फँसता | उदाहरणार्थ, यौन-सुख बद्धजीव के लिए
आवश्यक है और विवाह-सम्बन्ध के अन्तर्गत यौन-सुख की छूट दी जाती है |
शास्त्रीय आदेशों के अनुसार अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्री के साथ
यौन-सम्बन्ध वर्जित है, अन्य सभी स्त्रियों को अपनी माता मानना चाहिए |
किन्तु इन आदेशों क होते हुए भी मनुष्य अन्य स्त्रियों के साथ यौन-सम्बन्ध
स्थापित करता है | इन प्रवृत्तियों को दमित करना होगा अन्यथा वे
आत्म-साक्षात्कार के मार्ग में बाधक होंगी | जब तक यह भौतिक शरीर रहता है
तब तक शरीर की आवश्यकताओं को यम-नियमों के अन्तर्गत पूर्ण करने की छूट दि
जाती है | किन्तु फिर भी हमें ऐसी छूटों के नियन्त्रण पर विश्र्वास नहीं
करना चाहिए | मनुष्य को अनासक्त रहकर यम-नियमों का पालन करना होता है,
क्योंकि नियमों के अन्तर्गत इन्द्रियतृप्ति का अभ्यास भी उसे पथभ्रष्ट कर
सकता है, जिस प्रकार राजमार्ग तक में दुर्घटना की संभावना बनी रहती है |
भले ही इन मार्गों की कितनी ही सावधानी से देखभाल क्यों न की जाय, किन्तु
इसकी कोई गारन्टी नहीं दे सकता कि सबसे सुरक्षित मार्ग पर भी कोई खतरा नहीं
होगा | भौतिक संगति के कारण अत्यन्त दीर्घ काल से इन्द्रिय-सुख की भावना
कार्य करती रही है | अतः सभी प्रकार के नियमित इन्द्रिय-भोग के लिए किसी भी
आसक्ति से बचना चाहिए | लेकिन कृष्णभावनामृत ऐसा है कि इसके प्रति आसक्ति
से या सदैव कृष्ण की प्रेमाभक्ति में कार्य करते रहने से सभी प्रकार के
ऐन्द्रिय कार्यों से विरक्ति हो जाती है | अतः मनुष्य को चाहिए कि वह किसी
भी अवस्था में कृष्णभावनामृत से विरक्त होने की चेष्टा न करे | समस्त
प्रकार के इन्द्रिय-आसक्ति से विरक्ति का उद्देश्य अन्ततः कृष्णभावनामृत के
पद पर आसीन होना है |
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