अध्याय 2 श्लोक 57
इस भौतिक जगत् में जो व्यक्ति न तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है और न अशुभ के प्राप्त होने पर उससे घृणा करता है, वह पूर्ण ज्ञान में स्थिर होता है |
अध्याय 2 : गीता का सार
श्लोक 2 . 57
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य श्रुभाश्रुभम् |
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता || ५७ ||
यः – जो; सर्वत्र – सभी जगह; अनभिस्नेहः –
स्नेहशून्य; तत् – उस; प्राप्य – प्राप्त करके; शुभ – अच्छा; अशुभम् –
बुरा; न – कभी नहीं; अभिनन्दति – प्रशंसा करता है; न – कभी नहीं; द्वेष्टि –
द्वेष करता है; तस्य – उसका; प्रज्ञा – पूर्ण ज्ञान; प्रतिष्ठिता – अचल |
भावार्थ
इस भौतिक जगत् में जो व्यक्ति न तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है और न अशुभ के प्राप्त होने पर उससे घृणा करता है, वह पूर्ण ज्ञान में स्थिर होता है |
तात्पर्य
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